जन्माष्टमी पर मथुरा–वृंदावन में मुस्लिम कारीगर अपने हुनर से ठाकुरजी की पोशाकें तैयार कर रहे हैं। करीब 40 इकाइयों में 80% से अधिक कारीगर मुस्लिम समुदाय से हैं। जरी, रेशमी धागे और मोतियों से सजी ये पोशाकें देश-विदेश में लोकप्रिय हैं। सालाना 200–300 करोड़ रुपये के इस कारोबार में कला और भक्ति सांप्रदायिक सौहार्द्र की मिसाल पेश कर रही है।
मथुरा में गंगा-जमुनी तहज़ीब की अनोखी झलक
मथुरा, उत्तर प्रदेश — जन्माष्टमी के शुभ अवसर पर कृष्ण की नगरी मथुरा और वृंदावन भक्ति और उत्साह में डूबी हुई है। मंदिरों की झांकियों, रासलीला की रिहर्सल और सजावट के बीच एक अनूठा दृश्य हर साल ध्यान खींचता है—मुस्लिम कारीगरों द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की पोशाकों का निर्माण। यह परंपरा न केवल धार्मिक आस्था, बल्कि सांप्रदायिक सौहार्द्र की मिसाल भी है।
कारीगरी और कला का संगम
मथुरा–वृंदावन में लगभग 40 से अधिक कार्यशालाएं हैं, जहां ठाकुरजी (लड्डू गोपाल) की पोशाकें, मुकुट, पगड़ी, बांसुरी और गहने तैयार होते हैं। हैरानी की बात यह है कि इन कारीगरों में 80% से अधिक मुस्लिम समुदाय से हैं। ये कारीगर जरी, रेशमी धागे, मोती, स्टोन वर्क, सेक्विन और कांच के नगों से शानदार डिजाइन तैयार करते हैं, जिनकी मांग अमेरिका, इंग्लैंड, जापान, नेपाल और मॉरीशस तक रहती है।
आर्थिक महत्व और वैश्विक पहुंच
ठाकुरजी की पोशाकों का सालाना कारोबार मथुरा–वृंदावन में 200 से 300 करोड़ रुपये तक का है। एक पोशाक की कीमत 50 रुपये से लेकर 12,000 रुपये तक होती है। कई कारीगर मस्जिदों में बने छोटे-छोटे कमरों से यह काम करते हैं, और बांके बिहारी मंदिर समेत कई प्रसिद्ध मंदिरों में इन्हीं पोशाकों का उपयोग होता है।
धर्म से परे भक्ति और एकता
यह परंपरा दिखाती है कि कला और भक्ति की कोई सीमाएं नहीं होतीं। जब दुनिया के कई हिस्सों में धर्म के नाम पर दूरी बढ़ रही है, तब मथुरा का यह दृश्य एकता और गंगा-जमुनी तहज़ीब का ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत करता है। जन्माष्टमी यहां सिर्फ कृष्ण जन्म का पर्व नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता के पुनर्जन्म का प्रतीक भी बन जाता है। पूरी खबर देखने के लिए वीडियो पर क्लिक करें।